धान - कथावां
आज 10 किलोमीटर की ट्रेकिंग के बाद मेरे भाई और मित्र डॉक्टर सत्यनारायण
सोनी की राजस्थानी भाषा में प्रकाशित किताब ' धान - कथावां ' को पूरा
पढ़ा । राजस्थानी कहानियों का यह शानदार संग्रह हमारे ही एक अन्य मित्र
मायामृग के प्रकाशन ' बोधि प्रकाशन ' से प्रकाशित हुआ है ।
कुल 18 कहानियों के इस संग्रह में
सत्यनारायण जी ने अपने आस-पास के उन छोटे - छोटे बिंदूओं और मानवीय
संवेदनाओं के ताने -बाने को अपनी लेखनी से इस तरह रचा है कि पाठक को यही
महसूस होता है कि ये सब घटनाएं उसके खुद के जीवन की हैं , और इन कहानियों
को वो अपने-आप से जोड़ लेता है । मेरी इस बात से सभी सहमत होंगे कि पाठक
को जब किसी की लेखनी अपनी जीवन कूची लगने लगे तो यह लेखकीय क्षमता का
सीधा-सा प्रमाण है । लेखक ने अपने इस कहानी संग्रह को बेहद धैर्य और
लम्बे अनुभव के बाद छपवाकर पाठकों को नज़र किया है , यह इस बात से समझा जा
सकता है कि इसमें सबसे पुरानी कहानी 1997 की हैं और सबसे नई कहानी 2008
की है । पूरे पंद्रह साल के इंतज़ार और लेखकीय संशोधन के बाद 1997 की चार
कहानियों को इसमें जगह मिली है । परलीका ग्राम, सरकारी सेवा , पारिवारिक
अहसास और मूल्य , जीवन की आपा-धापी में कुछ पीछे छूटने का मलाल और सबसे
खास समाज की मनस्थिति को बेहतरीन तरीके से इसमें विश्लेषित किया गया है ।
इस पुस्तक की 'आ फोटू अठै कियां' , 'हर-हीलो', 'जलम-दिन', 'चिबखाण' आदि
कहानियाँ विशेषकर पाठक को इस बात से बखूबी अवगत करवा देती हैं कि सोनी जी
का सबसे बड़ा सामर्थ्य यह है कि वे अपने चारों तरफ से उन घटनाओं को भी
संवेदनशील हृदय से समझ सकते हैं जिन पर हमारा या तो ध्यान ही नहीं जाता
और या फिर हम उन्हें शब्दों में बाँध पाने की योग्यता नहीं रखते हैं ।
पहली कहानी ' आ फोटू अठै कियां ' तो सभी भारतीय भाषाओँ में अनूदित होने की
पात्र है ताकि एक विशाल पाठक वर्ग कौमी एकता को विश्लेषित तरीके से समझ
सके । मेरे इस कथन की पुष्टि के तौर पर कहूँगा कि इस कहानी का हिंदी में
अनुवाद सशक्त साहित्यकार मदनगोपाल लढा जी ने और गुजराती में श्री संजय
बी. सोलंकी जी ने कर दिया है ।
कुल मिलाकर यह राजस्थानी कहानी संग्रह
राजस्थानी साहित्य को समृद्ध करेगा । अंत में इस किताब के पहले पृष्ठ पर
छपी चंद आशावादी पंक्तियों को रख दूं जो शब्दों की साधक दुनिया की बात
करती हैं---------
तोपूं छूं
सबद - पनीरी
इण पतियारै -
कदै तो निपजैली
धान-कथावां .......
hindi me itna kuchh likhna kaise sambhav hua hanuvantsingh ji....
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